कांवड़ यात्रा का इतिहास: क्या है इसका रहस्य, जानिए कब हुई इस परंपरा की शुरूआत

सावन का पवित्र महीना 11 जुलाई से शुरू हो रहा है और 9 अगस्त तक चलेगा। इस महीने में भगवान शिव के भक्त कांवड़ यात्रा निकालते हैं, जिसमें वे दूर-दूर से गंगाजल लाकर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं। यह यात्रा उत्तर भारत के राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तराखंड और बिहार में विशेष रूप से प्रसिद्ध है।

कांवड़ यात्रा क्या है?
कांवड़ यात्रा में शिवभक्त पवित्र नदियों, खासकर गंगा नदी से जल भरकर अपने पैदल यात्रा के माध्यम से भगवान शिव के मंदिरों तक जाते हैं। यह जल वे सावन शिवरात्रि या किसी विशेष दिन भगवान भोलेनाथ को अर्पित करते हैं। कांवड़िए नारंगी या केसरिया वस्त्र पहनते हैं और ‘बोल बम’ के जयकारों के साथ चलते हैं। पूरे रास्ते में ये भक्त नंगे पांव चलते हैं और कोई गलत या अपवित्र काम नहीं करते।

कांवड़ यात्रा की शुरुआत किसने की?
इस विषय में कई धार्मिक मान्यताएं और कहानियाँ जुड़ी हैं:
परशुराम से जुड़ी मान्यता
कहा जाता है कि भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की थी। उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर बागपत के पास स्थित शिव मंदिर में जल अर्पित किया था।
श्रवण कुमार की कथा
त्रेता युग में श्रवण कुमार अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर तीर्थ यात्रा पर ले गए थे। वह उन्हें हरिद्वार लाए और गंगाजल भरकर लौटे। यह भी एक कारण है कि कांवड़ यात्रा को सेवा, भक्ति और त्याग का प्रतीक माना जाता है।
रावण और गंगाजल की कहानी
एक कथा के अनुसार, लंकेश्वर रावण ने हिमालय से गंगाजल लाकर भगवान शिव का अभिषेक किया था। जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले विष को पीकर अपना कंठ नीला किया था, तब गंगाजल से अभिषेक करके उन्हें ठंडक दी गई थी।

NEWS SOURCE Credit :punjabkesari

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